आज भारत में नारी उद्धार, नारी उत्थान, नारी अभ्युदय एवं नारी सशक्तिकरण आदि नाम से पता नहीं कितने संगठन बरसाती मेढक के सामान अवतरित हो गए है. वास्तव में आवारा गर्दी एवं निठल्लेपन का भर पूर आनंद उठाने के लिए इससे बढ़िया एवं उपयुक्त साधन और कोई अभी अब तक दिखाई नहीं देता है. थोड़ी स्कूली शिक्षा प्राप्त एवं आधी अधूरी पाश्चात्य सभ्यता को अपनाए कुछ पथभ्रष्ट एवं अश्लील औरतो का समूह बनाकर बाज़ार, गली, नुक्कड़ आदि में सभाएं करना, ज्यादा से ज्यादा अन्य औरतो एवं आवारा आदमियों को सब्ज़ बाग़ के सपने दिखाकर अपने संगठन का सदस्य बनाना और जब संख्या बढ़ जाय तो बस फूंकना, रेल रोकना तथा दूकान आदि बंद कराना शुरू. दिन में सभाएं करना तथा रात के अँधेरे में पुरुष सदस्यों द्वारा "रंगदारी" वसूलना, तथा महिला सदस्यों द्वारा मुंह काला करना एवं रंग रेलियाँ मनाना. और अगले दिन के कार्यक्रम के लिए येन केन प्रकारेण पैसे इकट्ठा करना.
आज से चालीस पचास साल पहले जब न तो इतनी शिक्षण संस्थाएं थी और न ही इतने सुधारक संगठन, औरतें पढ़ नहीं पाती थीं, उन्हें बाहरी दुनिया के भड़कीले एवं चमक दमक वाले रूप का दर्शन नहीं हो पाता था. तब वे अपने शील एवं आचरण को ही अपनी पूंजी मानती थीं. पारिवारिक संबंधो एवं प्रतिबंधो का मूल्य उन्हें ज्ञात था. परिवार का कोई भी सदस्य रिश्ते एवं संबंधो के आधार पर अपने परिवार की किसी भी महिला के साथ होने वाले दुराचार के विरुद्ध मरने एवं मारने के लिए तैयार हो जाता था. और औरतो को भी भरोसा था क़ि परिवार का पुरुष वर्ग उसकी रक्षा के लिए अपने प्राण तक दे सकता है.
किन्तु इससे कुछ तथाकथित दिग्भ्रमित, पथभ्रष्ट, वासनालोलुप हब्सियों – चाहे औरत हो या पुरुष, की यौन पिपासा शांत नहीं हो पाती थी. इसके लिए उन्हें कुछ विपरीत योनियों वाले साथी चाहिए थे या चाहिए हैं. अब वे किस तरह ऐसे साथियों को जुटाएं? इसके लिए उन्हें सीधी सादी, भोली भाली जनता को बरगलाना एवं फुसलाना पडेगा. लडके एवं लड़कियों को उच्च शिक्षा देकर उन्हें बुद्धिमान एवं योग्य बनाने का लालच देकर गाँव के निष्कलंक वातावरण से दूर इन्द्रिय जनित भड़क दार एवं चमक-दमक वाले लुभावने पर्यावरण में प्रवेश दिलाकर वैसे ही परिवेश में रहने एवं जीवन यापन का आदती बनाना पडा. अब एक बार जो इस दुनिया में प्रवेश कर गया उसे पीछे मुड़ कर देखने की फुर्सत कहाँ? दल दल में एक बार पैर फंस गया तो उसे हिलाते जाओ और गहराई में फंसते चले जाओ. इसके अलावा नए सौंदर्य प्रसाधनो के द्वारा उनकी सुन्दरता को निखारने का लालच देना, ताकि उस लडके या लड़की की शादी सुन्दर लडके या लड़की से हो सकेगा. इसके लिए मंहगे उपकरण, साजो सामान एवं रासायनिक औषधियों की व्यवस्था कर उन्हें उस जाल में फंसाना. तथा उन औषधियों का आदती बनाकर सदा के लिए उस जाल में स्थाई रूप से बाँध देना.
उसके बाद उस नए समाज के विविध नियम एवं आचार संहिता का पाठ पढ़ाना. भड़कीले वस्त्र पहनना, ऐसे पोशाक धारण करना जिससे शरीर का प्रत्येक यहाँ तक क़ि छिपा हुआ अंग भी ठीक ठीक झलक सके. और लोगो की नज़र उस तरफ बरबस ही आकर्षित हो सके. तथा वासाना की आंधी विकराल रूप से उठ सके. और इस व्यसन के उमड़ने वाले उफान में एक मात्र यौन साधना ही विकल्प दिखाई दे. और एक बार इस आंधी में उन्मुक्त रूप से उड़ने का स्वाद जिसने चख लिया उसके लिए तो बस-
सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ?
ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौज़वानी फिर कहाँ?
किन्तु ऐसे लडके-लड़कियों को ढूँढने के लिए ग्रामीण या सीधे सादे जन समुदाय के बीच पैठ बनानी पड़ेगी. और ऐसे लोग साधारण जन समुदाय में अपनी अलग छबि नहीं बना पाते थे. उन्हें कोई जान नहीं पाता था. वे लोक प्रिय नहीं हो पाते थे. या फिर अन्य भोले भाले पुरुष एवं औरतो को अपने विश्वास में नहीं ले पाते थे. अतः अपने शातिर दिमाग की खुराफाती उपज "सुधार" नामक "ब्रहमास्त्र" का सफल प्रयोग कर उन्हें उपरोक्त सपने दिखाना शुरू किये. लोगो में यह विश्वास दिलाने लगे क़ि वे लोग समाज की बुराईयों को मिटाने का संकल्प लिए है. वे समाज से अशिक्षा दूर करना चाहते है. औरतो के गिरते स्तर को ऊपर उठाना चाहते है. उन्हें पुरुषों के चंगुल से मुक्त करना चाहते है. उन्हें स्वतंत्र सोच विचार की ज़िंदगी देना चाहते है. और विविध लालच एवं सपने दिखाकर समाज में अपनी अलग छाप बनाना. फिर उस समुदाय से लडके लड़कियों को अलग ले जाकर उन्हें आधुनिकता का पाठ पढ़ाना. बताना क़ि वस्त्र शरीर ढकने के लिए नहीं बल्कि अंगो का ठीक ठीक, सटीक, सफल एवं जीवंत प्रदर्शन के लिए होता है. शिक्षा इतिहास-पुराण की शिक्षा लेकर नैतिकता के उत्थान के लिए नहीं बल्कि इन्द्रिय जनित सुखो की उपलब्धि के लिए यौन शास्त्र, नृत्य कला, कामसूत्र, संगीत एवं शरीर विज्ञान का अध्ययन करना आवश्यक है. ताकि एक दूसरे की भावनाओं को भड़काया जा सके. एक दूसरे को उद्वेलित किया जा सके. कारण यह है क़ि शरीर विज्ञान एवं जीव विज्ञान आदि के अध्ययन में शरीर के विविध अवयवो एवं अंगो को बार बार टटोलने से उस अंग विशेष के प्रति झुंझलाहट एवं झिझक समाप्त हो जाती है. और इस प्रकार लडके एवं लड़की को किसी भी अंग के एक दूसरे के समर्पण का कोई प्रतिरोध, विरोध या प्रतिबन्ध रह ही नहीं जाता है. और फिर शुरू होता है यौन शोषण एवं यौनाचार का अभूत पूर्व एवं उच्च स्तरीय मंचन.
आज इस समाज सुधार का उत्कृष्ट नमूना किस रूप में उभर कर सामने आया है? औरतो का विविध रंग रोगन, भड़क दार वस्त्राभूषण एवं हाव भाव के द्वारा अपने शरीर के अंगो का सार्वजनिक नुमाईस बनाना और ज्यादा से ज्यादा लोगो की नज़रें अपनी तरफ आकर्षित करना,उसके बाद किसी के वशीकरण जाल में फंस जाने पर अनैतिक शारीरिक सम्बन्ध बनाना, और गर्भ धारण कर लेने पर उसका "एबोरशन" करा देना. और फिर वही क्रिया पुनः दुहराना. वर्त्तमान उत्कृष्ट समाज की उच्च एवं उज्जवल विचार धारा के अनुसार यदि किसी के भी साथ शारीरिक सम्बन्ध यदि बना ही लिया गया तो क्या बिगड़ गया? क्या कम हो गया? अब शील नाम की अदृश्य चिड़िया की कल्पना के पीछे साकार एवं तात्कालिक यौन सुख को कौन कुर्बान करने जाय? उच्च एवं पढ़े लिखे औरत समाज में इस शारीरिक सम्बन्ध बनाने को ज्यादा तूल नहीं दिया जाता है. इसीलिए वासना की हबस मिटाने के लिए यदि किसी पवित्र रिश्ते से बंधे पुरुष से मुंह काला करने का भूत सवार हो जाय तो वयस्कता के नाम पर प्रेम को आधार बनाकर उससे सम्बन्ध बनाया जा सकता है, जिसका अनुमोदन आज का कानून भी कर चुका है. और इसका यदि किसी ने विरोध किया तो उसे दण्डित भी किया जाएगा. "प्रतिष्ठा ह्त्या" का नाम किस तरह अस्तित्व में आया है?
आज इतने भयंकर रूप से हुए सामाजिक एवं शासकीय प्रयत्न के बाद औरत स्तर सुधार कहाँ पहुंचा है? जिस अनमोल निधि के लिए इसे जाना जाता था उसे बर्बाद कर एक मादा पशु की बुद्धि एवं स्त्री का आवरण पहनने वाला जीव. इसके सिवाय और उसके पास क्या है?
आखीर उच्च शिक्षा प्राप्त कर औरत ने क्या कर दिखाया है जिसे पुरुषो ने नहीं किया? कोई ऐसा चमत्कार किसी औरत के द्वारा हुआ हो जिसे पुरुषो ने नहीं किया हो, ऐसा क्या है? यदि कोई हट के काम या कोई ऐसा काम जिसे पुरुष नहीं कर सकते उसे किसी औरत ने किया होता तो बात समझ में आती क़ि औरतो के स्तर ऊपर उठाने का यह अतिरिक्त लाभ समाज या सरकार या स्वयं औरतो के लिए लाभ कारी हुआ है.
एक विचित्र काम अवश्य हुआ है क़ि औरतो ने अपना स्तर ऊपर उठाकर यह स्वयं सिद्ध कर दिया है क़ि वह भोग्या है. इसीलिए वह नित्य नए रूप एवं भाव में अपने आप को पुरुषो के सम्मुख प्रस्तुत कर रही है. ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उसको भोग सकें. व्यसन के आसन पर वासना के चम्मच को उन्माद एवं जोश के हाथ से पकड़ कर अत्याधुनिक शिक्षित समाज की थाली में परस कर यौन व्यंजन को हबस के मुंह में डालना ही ऐसा अतिरिक्त काम औरतो का दिखाई दिया है जो "औरत उत्थान आन्दोलन" के बाद खुल कर सामने आया है.
जब प्रकृति ने उसे औरत बनाया है तो उसे स्वीकारने में क्यों हिचक?
क्या प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तक जितनी भी औरतें हुई है वे सब बेवकूफ, जाहिल, गंवार एवं भ्रष्टा थीं? आदि काल की लोपामुद्रा, मध्य काल की रानी कर्णावती, रजिया सुलतान एवं सल्तनत काल की वे औरतें जो चित्तोड़ गढ़ में अपनी अस्मत एवं शील की रक्षा के लिए "जौहर" करते हुए अपने आप को धधकती आग में भष्मीभूत कर लिया, वे सब औरतें नहीं थीं? क्या हुमायूं के आगे रानी कर्णावती ने अपनी अस्मत एवं शील सौंप कर अपनी रक्षा के लिए उसे प्रतिबद्ध किया था? क्या झांसी की रानी टाप एवं स्कर्ट पहन कर या सलवार सूट पहन कर झांसी की लड़ाई लड़ी थी? या उन्होंने अपने कालेज के ब्वाय फ्रेंड के साथ युद्ध के मैदान में जंग लड़ा था? शायद उन्होंने वर्तमान "नारी उत्थान समिति" के द्वारा शिक्षा ग्रहण नहीं किया था. या उन्होंने किसी आधुनिक शिक्षण संस्थान में सहशिक्षा नहीं पायी थीं.
आधुनिक औरत उत्थान आंदोलनों के अस्तित्व में आने से पूर्व घर परिवार में औरतो की रक्षा एवं उनकी पूजा का भाव मात्र इसलिए होता था क़ि उनके पास अनमोल निधि नारी सुलभ शील, कौमार्य एवं पारिवारिक मूल्यों के रूप में निहित थी. आज वह व्यसन, वासना एवं यौनाचार का या पाशविक हबस शांत करने की वस्तु मात्र इस लिए बन गयी है क़ि उसकी नज़रो में शील, कौमार्य एवं पारिवारिक मूल्य केवल पाखण्ड, दिखावा एवं एक पक्षीय प्रतिबन्ध के अलावा और कुछ नहीं है. उनकी समझ से ये सब चीजें आधुनिक बैंक के चेक है जिसे खूब भुनाना चाहिए. तथा उसे शेयर मार्केट में लगा देना चाहिए ताकि सेंसेक्स ऊपर उठने पर उसका ज्यादा रिटर्न मिल सके.
ज़रा पूछें क़ि औरत क्या भोग्या बनी है? कौन उसे भोगता है? उसे कोई भोगता है या वह स्वयं दूसरो को भोगती है? क्या जो उसे भोगता है वह नहीं भुगतता? क्या पुरुष ही औरतो को भोगता है? क्या औरतें पुरुषो को नहीं भोगती?
एक बार एक चोर का पीछा कुछ सिपाही कर रहे थे. चोर भागते भागते घन घोर रेतीले इलाके में पहुँच गया. सिपाही बोले क़ि ऐ चोर! हम तुम्हें दौड़ा दौड़ा कर मार डालेगें. चोर बोला क़ि मेरे पीछे तो तुम लोग भी उसी रफ़्तार में दौड़ रहे हो. तुम लोग मुझे दौड़ा दौड़ा कर भले न मारो पर तुम मेरे पीछे दौड़ दौड़ कर अवश्य मर जाओगे.
यह आधुनिक नारी उत्थान का ही परिदृश्य है क़ि जंगल, झाडी, गली, कूचे या कूड़े दान में नवजात शिशु फेंक दिए जाते है. कारण यह है क़ि उस शिशु के साथ रहने पर उन्मुक्त रासलीला संभव नहीं है. यह है आधुनिक नारी उत्थान एवं सामाज सुधार तथा उच्च नारी शिक्षा के द्वारा प्राप्त नारीत्व एवं मातृत्व का उत्कृष्ट नायाब तोहफा.
जो अधो वस्त्र है उसे ऊपर नहीं पहना जा सकता. यदि ऐसा किया गया तो वह फट जाएगा. अधो वस्त्र को अधो वस्त्र के रूप में ही इस्तेमाल करें.
और अधो वस्त्र की शोभा भी अधो वस्त्र के रूप में ही है. काजल आँखों में ही अच्छा लगता है. शरीर के अन्य भाग में लग जाने पर वह कालिख कहलायेगा. आँख देखने के लिए है उसमें भोजन नहीं डाला जा सकता. आँख में भोजन या अनाज का टुकड़ा डालने पर उसका सौंदर्य नष्ट हो जाएगा. या गलती से कोई जहरीला खाद्यान्न उसमे पड़ गया तो वह फूट भी जाती है. इसलिए आँख को पलको की छाँव में रहना चाहिए.
औरत यदि औरत ही बन कर रहे तो उसकी भलाई है. तभी वह सम्मान के योग्य है.
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फेंकी बच्ची को पाल-पोस रही है बिनब्याही लड़की
एक तरफ ऐसे माता-पिता हैं, जो अपनी नवजात बच्ची को फेंक देते हैं, दूसरी तरफ इस शहर में एक ऐसी मां भी है, जो शादीशुदा न होते हुए भी ऐसी ही फेंकी हुई बच्ची को समाज से लड़कर अपने पास रखती है। उसका पालन-पोषण करती है। समाज से लड़ने वाली यह मां है कोटगांव फाटक की सपना (बदला हुआ नाम)।
अप्रैल 2007 में एक बच्ची को उसकी मां ने पैदा होते ही नंदग्राम में खाली पड़े गोदाम में फेंक दिया था। कुत्ते उस बच्ची को खाने की कोशिश कर रहे थे। सपना उस वक्त को याद कर बताती है, एक पड़ोसी के बताने पर मैं और मेरा भाई गोदाम में गए। वहां खड़े किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह बच्ची को गोद में उठा ले। मैंने उसे गोद में ले लिया। इसके बाद मैं उसे घर ले आई। शुरुआत में परिवार की थोड़ी नाराजगी झेलनी पड़ी लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। पहले मां के कहने पर एक परिचित को फोन करके आग्रह किया गया कि वह इस बच्ची को गोद ले लें, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि वह लड़की थी। फिर एक-दो और लोगों ने बच्ची को लेना चाहा, लेकिन मुझे कुछ संशय हुआ। मैं अड़ गई कि अब मैं किसी भी हालत में इस बच्ची को नहीं दूंगी।
सपना ने बच्ची को कानूनी तौर पर गोद लेना चाहा, लेकिन इसमें कुछ मुश्किल आ गई। इसके बाद सपना की मां ने बच्ची को गोद लिया। सपना की पास के इलाके में ही शादी हो गई और उसके पति भी बच्ची के पालन-पोषण में पूरा सहयोग दे रहे हैं। बच्ची अब 5 वर्ष की हो चुकी है और पढ़ाई कर रही है। सपना का कहना है कि मैं उसे एक आईएएस ऑफिसर बनाना चाहती हूं।
अप्रैल 2007 में एक बच्ची को उसकी मां ने पैदा होते ही नंदग्राम में खाली पड़े गोदाम में फेंक दिया था। कुत्ते उस बच्ची को खाने की कोशिश कर रहे थे। सपना उस वक्त को याद कर बताती है, एक पड़ोसी के बताने पर मैं और मेरा भाई गोदाम में गए। वहां खड़े किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि वह बच्ची को गोद में उठा ले। मैंने उसे गोद में ले लिया। इसके बाद मैं उसे घर ले आई। शुरुआत में परिवार की थोड़ी नाराजगी झेलनी पड़ी लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। पहले मां के कहने पर एक परिचित को फोन करके आग्रह किया गया कि वह इस बच्ची को गोद ले लें, लेकिन उन्होंने मना कर दिया, क्योंकि वह लड़की थी। फिर एक-दो और लोगों ने बच्ची को लेना चाहा, लेकिन मुझे कुछ संशय हुआ। मैं अड़ गई कि अब मैं किसी भी हालत में इस बच्ची को नहीं दूंगी।
सपना ने बच्ची को कानूनी तौर पर गोद लेना चाहा, लेकिन इसमें कुछ मुश्किल आ गई। इसके बाद सपना की मां ने बच्ची को गोद लिया। सपना की पास के इलाके में ही शादी हो गई और उसके पति भी बच्ची के पालन-पोषण में पूरा सहयोग दे रहे हैं। बच्ची अब 5 वर्ष की हो चुकी है और पढ़ाई कर रही है। सपना का कहना है कि मैं उसे एक आईएएस ऑफिसर बनाना चाहती हूं।
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स्त्रियों के विरुद्ध होती घरेलु हिंसा
स्त्रियाँ सदैव से दुनिया के प्रत्येक हिस्से में पुरुषों के द्वारा शोषित की जाती रही है, यह एक ऐसी समस्या है जो किसी भी देश के शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक या बौद्धिक रूप से विकसित होने के बाद भी उस समाज में पायी जाती है किन्तु भारतीय समाज में इसका जितना अधिक विस्तार है उतना सिर्फ कुछ ही गिने-चुने देशों में है! एक तरफ स्त्रियाँ आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के बराबर आकर खड़ी हो गयी हैं दूसरी तरफ आज भी वह अपने ही घर में अपनों के बीच विभिन्न प्रकार से हिंसा और शोषण का शिकार हो रही है!
घरेलु हिंसा से तात्पर्य - घरेलु हिंसा उसे कहते हैं जब घर के एक सदस्य द्वारा दुसरे सदस्य के साथ कोई ऐसा व्यवहार किया जाये जिससे पीड़ित सदस्य के शरीर, किसी अंग, स्वास्थ्य या जीवन को खतरा उत्पन्न हो जाये….इसके अलावा किसी को मानसिक, आर्थिक या लैंगिक रूप से प्रताड़ित करना भी घरेलु हिंसा के अन्य प्रकार हैं!
प्रत्येक दिन पेपर पढ़ते हुए स्त्रियों के आत्महत्या करने, या आत्महत्या का प्रयास करने, दहेज़ के लिए जला दिए जाने या जलाने की कोशिश किये जाने, पति द्वारा बुरी तरह से पीटे जाने, पति द्वारा दूसरी शादी किये जाने, पति द्वारा पत्नी को घर से निकाल दिए जाने या इसी तरह की अन्य घटनाओं की कुछ खबरे सामने आ ही जाती हैं….ये वे घटनाएं होती हैं जो बड़े स्तर की होती हैं और सुर्ख़ियों में आ जाती हैं किन्तु इनसे कई गुना ज्यादा घटनाये जो सुर्ख़ियों में नहीं आ पाती रोज़ हमारे आस-पास घटती रहती हैं, कई बार तो हम स्वयं अपनी आँखों से ऐसा होते देखते है या अपने किसी जानने वाले के घर में ऐसी घटनाओ के घटने की खबरे सुनते हैं किन्तु ज़्यादातर मामलों में हम कभी बीच में नहीं पड़ते, और ऐसा होने का प्रमुख कारण यह है की हिंसा सहने वाली स्त्रियाँ स्वयं दुसरो को इन मामलो को अपना निजी मामला बताकर दूर रहने के लिए बोल देती हैं! वैसे भी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी के घर की घंटी बजाने से ऐसी घटनाएं रुकने वाली नहीं हैं, हाँ तब हो सकता है हिंसा करने वाले इसे नयी तरह से करें और घरेलु हिंसा करते वक्त अपने घर की टीवी का वोल्यूम इतना बढ़ा दे की कोई और आवाज़ बाहर वालों को सुनाई न दे या स्त्री पर यह कह कर और ज़ुल्म करें की अगर आवाज़ निकाली तो और पीटूँगा! अतः हमें इस बुराई को दूर करने के लिए इसके प्रमुख कारणों को जानकर उनका निवारण करना होगा!
घरेलु हिंसा के कारण-
घरेलु हिंसा के सांस्कृतिक कारणों में कुछ प्रमुख है – *स्त्रियों को पुरुषो से निम्नतर माना जाना, *स्त्रियों को पति की संपत्ति माना जाना, *समाज में व्याप्त दहेज़ प्रथा, *स्त्रियों को ही सदा समझौता करने के लिए प्रेरित करना तथा घर की अन्य स्त्रियों द्वारा ही घर की बहू के प्रति घृणा रखना… इत्यादि!
आर्थिक कारण- * आज भी ज़्यादातर स्त्रियों का आर्थिक रूप से किसी मर्द पर निर्भर रहना, * स्त्रियों को आज भी पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी न दिया जाना(स्त्रिया पैतृक संपत्ति में हिस्सा रखती हैं किन्तु उन्हें अक्सर दिया नहीं जाता), *स्त्रियों के निजी क्षेत्रों में काम करने पर उनका गलत तरीके से शोषण किये जाने का खतरा(हालांकि स्त्रियाँ सरकारी क्षेत्रों में भी अक्सर शोषित की जाती हैं)…इत्यादि!
विधिक कारण- *स्त्रियों की ज़्यादातर संख्या द्वारा अपने अधिकारों और कानूनों से अपरिचित होना, *मुकदमो का लम्बे-लम्बे समय तक चलते रहना, * पुलिस और न्यायालय द्वारा भी स्त्री के प्रति असंवेदनशील व्यवहार किया जाना….इत्यादि!
राजनीतिक कारण- *विधायन द्वारा घरेलु हिंसा के मुद्दे को अधिक गंभीर न मानना, *स्त्रियों का राजनीतिक क्षेत्र में कम संख्या में होना, *स्त्रियों और परिवार के मामलों को लोगो का निजी मामला मानना….इत्यादि!
उपरोक्त समस्त कारणों से बढ़कर कुछ व्यक्तिगत कारण हैं जो घरेलु हिंसा के प्रति ज़िम्मेदार होते हैं जैसे- *कुछ लोगों का अत्यधिक आक्रामक होना या शीघ्र क्रोध आना, *पति-पत्नी के बीच आपसी समझदारी की का न होना …इत्यादि!
उपरोक्त दिए हुए कारण ही मुख्य रूप से घरेलु हिंसा के लिए ज़िम्मेदार हैं जिन्हें दूर करने के लिए एक-एक व्यक्ति, पूरे समाज और हमारे विधायनो और विधिक व्यवस्था को प्रयास करना होगा, तभी हम इस कुरीति से छुटकारा पा सकते हैं,
भारत में स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले सभी प्रकार के अपराधों में लगभग 50 प्रतिशत सिर्फ उसके अपने घर के अन्दर ही उस पर किये जाते हैं चाहे वह उसका मायका हो या ससुराल, हाँ ससुराल में घरेलु हिंसा की घटनाएं और उनकी क्रूरता दोनों अधिक हो जाती है…
घरेलू हिंसा कई तरह के अमानवीय आचरणों द्वारा की जाती है जिसमे से कुछ प्रमुख का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है- *गर्भ में ही लड़कियों को पैदा होने से पहले मार दिया जाना, *लड़कियों के पैदा होने के बाद उन्हें अनाथालय या मंदिरों के बाहर छोड़ दिया जाना, *लड़कियों को बचपन से ही घर के काम काज में लगा देना तथा छोटी-छोटी गलतियों पर पीटना, *घर में ही लड़कियों का उनके रिश्तेदारों द्वारा लैंगिक रूप से शोषण किया जाना, *शादी के समय दहेज़ के लिए मांग करना तथा शादी के बाद दहेज़ न मिलने या दहेज़ में और कुछ लाने के लिए स्त्रियों को पीटना, *दहेज़ की मांग पूरी न होने पर स्त्रियों को जला देना या मार डालना, *कई बार पतियों द्वारा अपनी पत्नी को वैश्यावृत्ति करने के लिए मजबूर करना, *पति द्वारा नशे में पत्नी को पीटना और उसके साथ अप्राकृतिक रूप से लैंगिक सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करना, ससुराल वालों द्वारा छोटी-छोटी बात पर बहु को ताने मारना या पीटना, कई बार स्त्री का इतना मानसिक और आर्थिक शोषण करना की वह स्वयं आत्महत्या कर ले…इत्यादि!
कोई कहने के लिए स्त्रियों के सशक्तिकरण को चाहे जितना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करले किन्तु यह सत्य की आज भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी भागीदारी को दर्ज कराने के उपरान्त भी सामाजिक रूप से उसे वह दर्जा नहीं मिल पाया है जो उसे एक पुरुष के बराबर खड़ा कर सके, मेरा सभी लोगों से प्रश्न यह है की आखिर क्यों कोई भी व्रत करना हो तो स्त्री आगे, कोई त्याग करना हो तो स्त्री आगे, शादी के बाद सौ तरह के बंधन, सभी को खुश रखने की ज़िम्मेदारी एक बहू की, किसी काम में थोड़ी सी भी गलती हो गयी तो बहू की खैर नहीं, शादी-शुदा स्त्री को मांग में सिन्दूर, माथे पर बिंदी, गले में मंगलसूत्र, हांथो में चूड़ियाँ, पैरों में पायल और बिछिया, आखिर पुरुष को शादी के बाद क्यों नहीं साज-श्रृंगार के बंधन में बांधा जाता, क्यों नहीं हम एक शादी-शुदा मर्द और कुंवारे मर्द को देख कर पहचान सकते जबकि स्त्रियों के लिए ऐसा करना परम आवश्यक बाध्यता है…पुरुष शादी के बाद भी ऐयाशी कर सकने के लिए स्वतंत्र है, पैसे कमाने के अलावा क्या पुरुष की कोई ज़िम्मेदारी नहीं? अपनी पत्नी के सुख-दुःख का ख्याल रखने की, वक़्त मिले तो घर के काम में उसका हाँथ बटाने की, पत्नी से प्यार से उसका हाल जानने की…क्या इन सब बातों को करने से मर्द की मर्दानगी कम हो जाती है? मेरी तो नहीं होती!
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