Monday, October 22, 2012

सूट-बूट में दकियानूस दिमाग



 भारतीय समाज में बलात्कार या शारीरिक उत्पीड़न के मामलों में औरत को दोषी करार देने का रवैया बहुत पुराना है। यह वही देश है जहां अहल्या को इंद्र की वासना का शिकार होने पर पत्थर बनने का शाप दिया गया। इसी समाज में बलात्कार पीड़ित फांसी की रस्सी गले में डाल कर बेगुनाह होते हुए भी गुनहगार बन जाता है। यही वह मुल्क है जहां नाबालिग बच्ची का शोषण होने की खबर आने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करवा दी जाती है। इसी महान देश के भरे बाजारों में शरीफ मर्द एक औरत को वेश्या कह उसके कपड़े नोचते हैं।

स्त्री का संघर्ष अभी चल रहा है। हर तबका अपने तरीके से उसे टांग पकड़ कर नीचे खींचेगा। यह मान लेना भूल होगी कि अमीर और कथित 'एलीट' समाज में स्त्री का कोई अस्तित्व है। अगर आपके पड़ोस वाले घर की लड़की बालकनी में ज्यादा वक्त बिताती है तो वह मोहल्ले की 'रंभा' बन जाती है, जबकि कोई रईस तबके की लड़की अपने मंगेतर के साथ होते हुए भी किसी 'पराए' मर्द से ब्लैकबरी मैसेंजर पिन मांगती है तो वो 'वाइफ मटीरियल' नहीं कहलाती। ये मामले समाज के अलग-अलग तबकों के जरूर हैं पर इनके पीछे आधार एक ही है। स्त्री का एक लगा-बंधा, पुरुषों द्वारा तय किया करैक्टर होता है। बीवी हो तो शर्मीली हो, बहन हो तो कहना सुने, मां हो तो त्याग की देवी हो।

प्रेमिका अपनी है तो बाइक पर चढ़ना, पार्क में बैठना सही, दोस्त की है तो चालू कहलाएगी।
आधुनिकता का लिहाफ ओढ़ने वाले एलीट समाज के भीतर छुपी दकियानूस बू वक्त-वक्त पर पिछड़े समाज तक पहुंचती रहती है। ऐसे में पिछड़ेपन के समर्थक सीना चौड़ा करके यही कहते हैं 'ऐश्वर्या राय हॉलिवुड चली गई, फिर भी मांगलिक थी, पेड़ के फेरे लिए ना। कुछ भी कर लो रहोगी तो लड़की ही।' असल में हम एक बेहद 'कनफ्यूज्ड' दौर से गुजर रहे हैं। औरत की आजादी का राग अलापते हुए उसे लोहे की जंजीरों से निकाल कर, चांदी की हथकड़ियां पहना रहे हैं। जहां अब तक संघर्ष परदे और घूंघट से था, वहीं अब मिनी स्कर्ट और बिकिनी से भी निपटना है। कमर चौबीस इंच से यादा नहीं, गले पर 'कॉलर बोन' और चार इंच की पेंसिल हील की जबर्दस्ती ने इसी आधुनिक समाज की स्त्री को जोड़ों की लाइलाज बीमारी और पीठ दर्द सौंपा है।

कपड़े और आजादी
स्त्री-विमर्श का ढोल पीटने वालों को अब सिर्फ चारदीवारी पर सवाल नहीं उठाने हैं। उन्हें 'स्लट वॉक' का समर्थन करने वालों से भी पूछना है कि क्या हंसी-ठहाके लगाते हुए टोरांटो की नकल कर लेना काफी है? क्या कनाडा की स्त्री की आजादी की लड़ाई और एक भारतीय स्त्री के स्वावलंबी होने के संघर्ष का रास्ता एक ही होगा। हम दोहरी मार झेल रहे हैं। हमें एक सड़े-गले समाज में रहते हुए खुली हवा में सांस लेने का नाटक करना है। इन हालात में खुद को आजाद ख्याल साबित करने के लिए छोटे कपड़े पहनने की मजबूरी वैसी ही है, जैसे पतिव्रता साबित करने के लिए साड़ी पहनना। ऐसे आधुनिक समाज से स्त्री का कोई भला नहीं होने वाला जहां शॉर्ट-टॉप तो पहना जा सकता है, लेकिन लॉन्ग मंगलसूत्र के साथ।

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