किसी आदिवासी महिला को डायन बताकर उसे प्रताडित करने के समाचार हम आए दिन पढ़ते हैं या सुनते हैं। इस संदर्भ में एक प्रश्न उभरता है कि क्या आदिवासी समाज में डायन का होना एक सच्चाई है या मात्र अंधविश्वास? सत्य तो यह है कि डायन सच्चाई तो है ही नहीं। यह आदिवासी समाज में दबदबा रखने वाले दुश्चरित्र समाजकंटकों की कुटिल चाल होती है। यही वे व्यक्ति होते हैं, जो कि आदिवासियों की अशिक्षा और भोलेपन का नाजायज फायदा उठाकर किसी महिला को डायन करार देकर उसे प्रताडित करते हैं, यहां तक उसकी हत्या तक के लिए समाजजनों को उकसाते हैं।
आखिर वे ऎसा क्यों करते हैं? अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे-डायन घोषित की गई महिला द्वारा ग्राम के किसी तथाकथित प्रभावी व्यक्ति की कुत्सित इच्छा की पूर्ति न करना, ग्रामजनों के समक्ष उसका असली चेहरा उजागर करने का प्रयास करना, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उसे हानि पहंुचाने या उसकी अवमानना करने का प्रयास करना, उसके अनैतिक कायोंü में बाधा पहुंचाना, ग्राम की महिलाओं का नेतृत्व करने का प्रयास करना आदि। किसी स्त्री को डायन घोषित करने के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जैसे उस स्त्री के परिवार के साथ ग्राम के किसी प्रभावी व्यक्ति की दुश्मनी होना, भूमि संबंधी विवाद, उसके पति द्वारा ग्राम के किसी प्रभावी व्यक्ति का अनैतिक कायोंü में सहयोग न करना या विरोध करना आदि।
कभी-कभी स्त्री का पति या परिवार के सदस्य भी उसे डायन बताकर लांछित, प्रताडित और अपमानित कर उसका जीवन नारकीय बना देते हैं। ऎसा वे तब करते हैं, जबकि परिवार के सदस्यों को उस स्त्री के चरित्र पर शंका हो अथवा उसे संतान न हो रही हो। निश्चय ही इसमें समाजकंटक भी उनको उकसाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। पहले तो ग्राम के ऎसे स्त्री-पुरूषों की तलाश की जाती है, जिनकी उस स्त्री या उसके परिवार से न बनती हो, वैमनस्य हो, ईश्र्या-द्वेष या विरोध हो। ऎसे लोगों को उस स्त्री के विरूद्ध अनर्गल बातें कर उन्हें उकसाया जाता है। धीरे-धीरे ऎसे समूह का विस्तार होता जाता है। फिर उसके डायन होने का दुष्प्रचार किया जाता है। इसके साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से डायन घोषित कर प्रताडित करने के लिए उचित अवसर की तलाश की जाती है। ऎसा अवसर उन्हें, तब मिलता है, जब ग्राम में कोई महामारी फैले, बड़ी संख्या में बच्चों, माताओं या पशुओं की मृत्यु हो, खेतों-खलीहानों में आग लग जाए या इसी प्रकार की कोई अन्य आपदा आ जाए।
इसमें से कोई भी घटना घटित होने पर वे पारंपरिक पंचायत की बैठक बुलाते हैं। पंचायत ग्राम के ओझा, जिसे पुजारा, भूमका, पडिहार या बड़वा कहा जाता है, को निर्देष देती है कि वह आत्माओं की पूजा-अर्चना या बली-तर्पण कर पता लगाए कि ग्राम में यह विपत्ति क्यों आई है? कहना न होगा दुश्चक्र चलाने वाले व्यक्ति पहले ही ओझा को साध लेते हैं। वह पूजा, तर्पण आदि का ढोंग रचकर घोषित करता है कि फलॉ स्त्री डायन है और वही इस आपदा के लिए उत्तरदायी है। वह यह भी घोषित करता है कि आपदा से मुक्ति पाने के लिए डायन के साथ क्या किया जाए। दंडस्वरूप उसका ग्राम से निष्कासन बहुत साधारण बात है, इसलिए प्राय: इस प्रकार की सजा नहीं दी जाती है। आमतौर पर डायन घोषित स्त्री को निर्वस्त्र कर ग्राम में घुमाया जाता है, उसे गालियां दी जाती हैं, उस पर पत्थर फेंके जाते हैं, उसके बाल पकड़कर उसे घसीटा जाता है और इसी तरह की अन्य प्रताड़नाएं दी जाती हैं।
वह रोती है, प्रार्थना करती है, अपने निर्दोष होने की बात कहती है, पर उसकी बात नहीं सुनी जाती है। ऎसा तब तक किया जाता है, जब तक वह बेहोश होकर गिर न पड़े। बेहोश होने पर उसे घसीटकर गांव से बाहर फेंक दिया जाता है। इस बीच उसके मां-बाप भी समाज के भय से उसका साथ नहीं दे पाते हैं। मां-बाप, ससुराल वाले खासकर पति भी उसी समाज के होने के कारण डायन संबंधी भ्रांति से ग्रस्त रहते हैं। डायन घोषित होने और उसे प्रताडित करने से ही मामला खत्म नहीं हो जाता है। उस स्त्री का कोई साथ नहीं देता है। उसके खाने-पीने के लाले पड़ जाते हैं।
उसे भीख देना तो दूर, कोई उसे अपने द्वार पर खड़ा भी नहीं होने देता। मनचले और गैरकानूनी कार्य करने वाले लोग उसे घेर लेते हैं। वह भी बेबस रहती है। अपनी रक्षा के लिए उसे किसी न किसी का साथ तो चाहिए ही। इसलिए वह नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य होती है। बहुत कम मामलों में पीडित स्त्री, उसके परिवार का कोई सदस्य या नातेदार पुलिस को शिकायत करता है। रिपोर्ट दर्ज करने पर पुलिस कार्रवाई करती है, परन्तु पुलिस का काम करने का अपना तरीका होता है। ऎसे मामलों में गवाही देने वाले भी सहज नहीं मिलते हैं। यदि मिल जाएं तो भी मामला महीनों नहीं सालों चलता है। कभी-कभी अपराधियों को दंड भी मिलता है। पर डायन घोषित उस स्त्री को इससे क्या मिलता है? किसी महिला को डायन क्यों बनाया जाता है? राष्ट्रीय महिला आयोग का कहना है कि भारत के पचास से ज्यादा जिलों में डायन प्रथा है भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग ने डायन प्रथा पर केंद्रीय कानून बनाने का काम शुरू कर दिया है. डायन प्रथा के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर झारखण्ड जैसे राज्यों ने पहले ही कानून बना लिए हैं. अब छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा भी इसी राह पर हैं. कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओ का कहना है कि मौजूदा कानून के तहत भी कार्रवाई की जा सकती है, मगर पुलिस इसमें कोई रूचि नहीं लेती. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं के उत्पीड़न की घटनाएं रह-रहकर सर उठाती रही हैं. बोली देवी की कहानी बोली देवी विश्नोई एक औरत हैं, वो इन्सान भी हैं, मगर समाज के एक हिस्से ने भीलवाड़ा की इस महिला को डायन नामजद कर दिया. इसके साथ ही बोली देवी और उनके परिवार पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा. बोली ने जब आपबीती बयान की तो उनकी आँखे छलछला गईं. वे कहती हैं, ''मुझे और मेरे परिवार को आठ साल हो गए जब गाँव में जाति के लोगों ने डाकन या डायन करार दिया. तब से जिंदगी नारकीय हो गई है. बाहर आना-जाना बंद है. बड़ी घुटन होती है. यहाँ तक कि मेरी दो पुत्र- वधुओं को भी मेरा साथ देने पर जगह-जगह बेइज्जत किया गया.'' "मुझे और मेरे परिवार को आठ साल हो गए जब गाँव में जाति के लोगों ने डाकन या डायन करार दिया. तब से जिंदगी नारकीय हो गई है. बाहर आना-जाना बंद है. यहाँ तक कि मेरी दो पुत्र- वधुओं को भी मेरा साथ देने पर जगह-जगह बेइज्जत किया गया." बोली देवी के पति सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन दबाव और तनाव में नौकरी को तिलांजलि दे दी. बोली देवी जहाँ भी जाती हैं, लोगों से कभी कातर-कंठ से तो कभी गुस्से में पूछती हैं कि क्या वो उन्हें डाकन नजर आती हैं? पर जवाब न समाज देता है और न ही सरकार. ''बहुत छोटी-छोटी बात के लिए औरत को जिम्मेदार बताकर डायन करार दे दिया गया. जैसे गाय ने दूध देना बंद कर दिया, कुँए में पानी सूख गया, किसी बच्चे की मौत हो गई तो अन्धविश्वास के चलते औरत को डायन घोषित कर दिया गया. कई मामलों में सम्पत्ति हड़पने की नीयत से भी महिलाओं को डायन करार दिया गया. "बहुत छोटी-छोटी बात के लिए औरत को जिम्मेदार बताकर डायन करार दे दिया गया. जैसे गाय ने दूध देना बंद कर दिया, कुए में पानी सूख गया, किसी बच्चे की मौत हो गई तो अन्धविश्वास के चलते औरत को डायन घोषित कर दिया गया." डायन करार दी गईं औरतों के साथ बहुत ही पाशविक बर्ताव किया गया. यौन अत्याचार, उनके बाल काट देना, मुंडन कर देना और फिर गांव से बहार निकाल देना भी इसमें शामिल है. इन पीडितों में से कुछ ऐसी भी थीं जिनके पास तन ढँकने के लिए कपड़े तक नहीं छोड़े गए. कुछ के मुंह में मल-मूत्र तक ठूँसा गया. फिर इन घटनाओं से इन महिलाओं का छोटा-मोटा रोजगार भी छिन गया. कुछ को ताले में बंद रखा जा रहा था तो कुछ को गांव के बाहर रखा जाता था. --------------------------- |
| महिलाओं के साथ अपराध अगर भारत में महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की बढ़ोतरी की दर इतनी ज्यादा है कि उसने अन्य सभी अपराधों को पीछे छोड़ दिया है , तो यह कोई हैरानी की बात नहीं है। देश में डेमोक्रेसी के साथ सामाजिक मूल्यों के दोहरेपन का भी विकास हुआ है। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) के मुताबिक 1971 में देश में रेप के कुल 2043 केस दर्ज किए गए थे। वर्ष 2011 में ऐसे मामलों की संख्या 24 हजार को पार कर गई। सारे राज्यों के मुकाबले मध्य प्रदेश में रेप के सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए। लेकिन भद्रलोक कहलाने वाले राज्य पश्चिम बंगाल का दूसरे नंबर पर होना एक ऐसी कड़वी सचाई की तरफ संकेत करता है जिससे लगता है कि पढ़ाई - लिखाई से आने वाली नैतिकता इस मामले में बेअसर साबित हो रही है।
महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा अपराध सर्वाधिक साक्षरता वाले राज्य केरल में हो रहे हैं। इसके लिए सिर्फ लचर कानून व्यवस्था को दोषी ठहरना इस समस्या को सीमित ढंग से देखना है। अगर कोई महिला अपने दफ्तर से देर रात घर जाते हुए महफूज नहीं है तो इसके लिए पुलिस तंत्र को कोसा जाता है। पर यदि दिनदहाड़े किसी महिला से सार्वजनिक जगह पर बदतमीजी होती है , तो यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है। इससे हमारे ही बीच मौजूद कुछ लोगों की विकृत सोच उजागर होती है। ऐसे लोगों की नजर में स्त्री सिर्फ उपभोग की वस्तु है। घर से बाहर पांव रख रही स्त्री उनके लिए आसान शिकार होती है।
इधर देश में महिलाओं की सार्वजनिक मौजूदगी काफी ज्यादा बढ़ी है। यह सिर्फ महिलाओं का घर से बाहर आना मात्र नहीं है। बल्कि महिलाएं उन सभी क्षेत्रों में पुरुषों से आगे निकल रही हैं या उनसे बेहतर साबित हो रही हैं , जिनमें कभी मर्दों का दबदबा रहा है। घटिया मानसिकता वाले पुरुषों को स्त्री का यह दखल बर्दाश्त नहीं हो रहा है। इसीलिए कभी महिलाओं के कपड़ों को , तो कभी देर रात तक उनके घर से बाहर रहने को उनके साथ होने वाले अपराधों की वजह बताने की कोशिश की जाती है। लेकिन उनके खिलाफ अपराधों में कमी लाने के लिए योजनाबद्ध और संगठित उपाय तो सरकार ही कर सकती है। जैसे थानों में पीड़ित महिलाओं के लिए विशेष सेल बनाए जा सकते हैं , उनकी किसी भी शिकायत पर तुरंत कार्रवाई अनिवार्य बनाया जा सकता है और साफ कानून बनाए जा सकते हैं। ------------------------------------------------ छेड़छाड़ करने पर मिलेगी रेप से सख्त सजा रेप की परिभाषा बदलने को कैबिनेट की मंजूरी के बाद रेप को जेंडर न्यूट्रल क्राइम बनाया जाएगा और रेप शब्द की जगह ज्यादा असरदार शब्द सेक्शुअल असॉल्ट का इस्तेमाल किया जाएगा। कानूनी जानकारों के मुताबिक प्रस्तावित कानून का ज्यादा असर होगा और इससे महिलाओं के साथ-साथ बाल अपराधों पर भी रोक लगाने में मदद मिलेगी।
अभी क्या है मौजूद सिस्टम कानूनी जानकार बताते हैं कि अभी आईपीसी की धारा-375 के अनुसार महिला की मर्जी के बिना (या 16 साल तक की नाबालिग लड़की के साथ) फिजिकल रिलेशन बनाने (सेक्सुअल ऑर्गन के पेनेट्रेशन) को रेप माना जाता है। लेकिन अगर रेप के बदले सेक्शुअल असॉल्ट (यौन शोषण) शब्द का इस्तेमाल होता है तो दायरा काफी बढ़ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में क्रिमिनल लॉयर डी. बी. गोस्वामी ने बताया कि अगर रेप की जगह यौन शोषण शब्द का प्रयोग किया जाएगा और इसे जेंडर न्यूट्रल किए जाने से यह कानून काफी असरदार हो जाएगा। धारा-375 के तहत रेप को परिभाषित किया गया है। रेप तभी माना जाता है जब सेक्सुअल ऑर्गन में पेनेट्रेशन हो लेकिन जब रेप शब्द को हटा कर उसकी जगह सेक्सुअल असॉल्ट शब्द का इस्तेमाल होगा तो सेक्सुअल ऑर्गन में पेनेट्रेशन से रिलेटड कम्पल्शन साबित करने की जरूरत नहीं रहेगी।
छेड़छाड़ भी भारी पड़ेगी जानी मानी वकील रेखा अग्रवाल ने बताया कि मौजूदा कानूनी प्रावधानों के मुताबिक अगर किसी लड़की के साथ कोई छेड़छाड़ करता है या फिर उसके कपड़े फाड़ता है और उसकी इज्जत पर हाथ डालता है, लेकिन रेप नहीं कर पाता है तो मामला छेड़छाड़ तक सीमित रह जाता है और छेड़छाड़ के तहत अधिकतम दो साल की सजा हो सकती है।
रेप की परिभाषा बदले जाने के बाद महिलाओं की इज्जत पर हाथ डालने या फिर उसके कपड़े फाड़ने या फिर अन्य तरह से सेक्सुअल असॉल्ट करने के मामले में आरोपी शिकंजे में आ सकेगा और इस तरह ऐसे अपराधी से ज्यादा असरदार तरीके से निपटा जा सकेगा।
क्राइम अंगेस्ट चाइल्ड भी दायरे में जेंडर न्यूट्रल किए जाने से बच्चों के साथ दुराचार करने वालों को इस दायरे में लाया जा सकेगा। इस तरह बच्चों के खिलाफ सेक्सुअल क्राइम पर भी रोक लग सकेगी। अभी रेप की परिभाषा में महिला की मर्जी के खिलाफ सेक्सुअल ऑर्गन पेनेट्रेशन की बात साबित करना जरूरी है, इसलिए ओरल सेक्स या फिर किसी मेल चाइल्ड के साथ दुराचार करने या इसकी कोशिश करने वाले कानूनी प्रावधान की आड़ में बच निकलते थे। सरकार रेप शब्द की परिभाषा में जो बदलाव ला रही है और नई परिभाषा में सेक्शुअल ऑर्गन पेनेट्रेशन की कम्पल्शन अगर खत्म होती है तो कानून बेहद प्रभावी होगा।
मिलेगीसख्तसजा अग्रवाल के मुताबिक अगर किसी महिला के साथ छेड़छाड़ होती है, सरेआम उसके कपड़े फाड़े जाते हैं या फिर रेप (सेक्सुअल ऑर्गन पेनेट्रेशन) करने की कोशिश की जाती है तो यह अपराध रेप से भी ज्यादा भयानक है। लेकिन मौजूदा कानून के तहत उसे रेप नहीं माना जाता। सेक्सुअल असॉल्ट शब्द का इस्तेमाल होने से ऐसे अपराध करने वाले भी शिकंजे में आ सकेंगे और उन्हें सख्त सजा मिलेगी। साथ ही जेंडर न्यूट्रल होने से पीडि़त पुरुष भी ऐसे मामले में शिकायत कर सकते हैं। इसके अलावा होमो सेक्सुअल्टी के मामले में अगर रजामंदी के बिना जबरन कोई रिलेशन बनाता है तो वह भी इस कानून के दायरे में आएगा। ------------------------------------- ये कैसा प्रेम, 11 साल की बेटी का रेप करवा डाला | स्तब्ध कर देने वाली एक घटना के तहत तमिलनाडु के मदुरै में 11 साल की एक लड़की का उसकी मां की सहमति से एक व्यक्ति ने बलात्कार किया। लड़की की मां को गिरफ्तार कर लिया गया है।
पुलिस ने रविवार को मदुरै में बताया कि यह घटना तब सामने आयी जब सरकारी राजाजी अस्पताल के डाक्टरों ने उसका परीक्षण किया।
पुलिस को सूचना दी गयी कि यह यौन शोषण का मामला है और लड़की के पिता की शिकायत पर उसकी मां को गिरफ्तार किया गया।
सक्किमंगलम में महिला ने कथित रूप से अपने प्रेमी रवि को 15 जून को इस लड़की का बलात्कार करने पर सहमति दी थी।
-------------------------------------------------------------- बेटी बेटियां पैदा होते ही अपने छोटे नाज़ुक कान्हों पर समाज के द्वारा बनाये गए अनगिनत बोझ को उठा लेती हैं। जैसे-जैसे समझदारी बढती जाती है, उनको इन बोझों के विभिन्न नाम बताये जाते हैं। उन्हें खुद अपनी मर्यादाएं समझ में आने लगती हैं। उनको भले ही कहा जाये की वो स्वतंत्र हैं, परन्तु बंदिशों का एहसास करवाया जाता है। मैं यह नहीं कहती की सब उनके बुरे के लिए किया जाता है, बेशक इसमें उनकी भलाई भी छुपी होती है। परन्तु एक बेटी के इस बात का दर बैठ जाता है कि कहीं उससे कोई गलती न हो जाये। यदि बेटा किसी लड़की से बात करे तो चलता है, पर बेटी किसी लड़के से बात करे तो खलता है। बेटा गलती से कुछ गलत बोल दे तो, अभी बच्चा है सिख जायेगा धीरे धीरे। पर बेटी से ऐसी गलती हो जाये तो उसे शब्दों की सीमायें याद दिला दी जाती हैं। एक बेटी के साथ घर का सम्मान, प्रतिष्ठा, इज्ज़त और न जाने क्या क्या जुदा होता है। इसमें कुछ गलत नहीं, बल्कि यह बेटे के भी साथ जुड़ा होता है पर शायद बेटियों के मामले में इनका वज़न कुछ ज्यादा ही होता है। बेटियों को हर एक यह कर उठाना पड़ता है की कहीं समाज के उसूल न टूट जाये। बोला जाता है कि गलती से ही इंसान सीखता है, पर बेटियों को तो गलती करने की इजाज़त ही नहीं। उन्हें तो हर चीज़ में भगवान् के घर से पी एच डी किया हुआ समझा जाता है। क्या वे इंसान नहीं? क्या उन्हें अपनी गलतियों से सीख पाकर आगे बढ़ने का हक़ नहीं? क्यूँ उन्हें बार-बार याद दिलाया जाता है की वे लड़की हैं? इतने सरे बोझ और बंदिशों के साथ वे इस पापी दुनियां में पैदा होती हैं और उन्हें कहा जाता है कि वे स्वतंत्र हैं। बेटियों को तो बेफिक्र साँस लेने की भी इजाज़त नहीं। अपने नाज़ुक कन्धों पर इस ढोंगी समाज के वज़न को उठा कर वे जीती हैं और उन्हीं बेटियों को आज बोझ समझा जाता है। उनकी ही जन्म से पहले हत्या कर दी जाती है। शय ये समाज डरता है कि पता नहीं पिया होने वाली बेटी में हमारे द्वारा रचे पाखंड में जीनें की क्षमता है कि नहीं। हमारे द्वारा पैदा किये गए काँटों में वो अपने नाज़ुक पैरों से कहाँ चल पायेगी। हर कदम पर तो हमने उसके लिए परीक्षा राखी है, कभी न कभी तो फेल होगी ही और तब हम उसे ताने मरेंगे। इतनी कठिन डगर में बेटियां कहाँ चल पाएंगी, चलो पैदा होने से पहले ही उसे मार देते हैं। पर शायद ये समाज भूल चूका है की बेटियों का जन्म नहीं अवतार होता है। उसकी प्यारी सी एक मुस्कान हजारों अंगारों की भड़की आग भी बुझा देती है। अपने नाज़ुक कन्धों पर समाज के भरी से भरी वज़न को फूल की भांति उठा कर अपनी पायल की आवाज़ पर माकन को घर बना देती है। वो कमज़ोर दिखती है परन्तु उसके जैसी ताकत दुनिया के किसी पुरुष में नहीं। यह समाज पुरुषत्व की बात करता है, जिस दिन इसने नारित्वा का अर्थ समझ लिया उस दिन इस अर्थहीन समाज का अर्थ निकल आएगा। इस समाज से एक बेटी का आग्रह है कि अपने पाखंड को त्याग दीजिये। इस आडम्बर में इश्वर की रची सबसे खुबसूरत रचना 'बेटियां' कुचली जा रही हैं। अपने मापदंडों को बदलिए। सिर्फ बेटे-बेटियों को समान कह देने से कुछ नहीं होगा। अपने अंतर्मन से जब तक आप यह नहीं स्वीकारेंगे तब तक ये बेटियां ऐसे ही अथाह पीड़ा के साथ मुस्कुरायेंगी, परन्तु मन ही मन उनके आंसू बहते रहेंगे। ------------------------------------------- उदासी से मुक्ति दिला सकती है आयरन की गोलियां |
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